"हर संस्थान के पास एक फाइल होती है...जिसे कभी आधिकारिक रूप से नहीं खोला जाता —लेकिन वो सबसे ज़्यादा बोलती है।"

— जयवर्धन त्रिपाठी


सुबह 10:31 AM — विश्वविद्यालय का आर्काइव रूम पुराना, ठंडा, और धूल से भरा कमरा। दीवारों तक पहुँचती लकड़ी की अलमारियाँ, जिनमें एक सदी के दस्तावेज़ दबी साँसों में पड़े थे। कमरे में हल्की-सी सीलन की गंध थी —जैसे कुछ फाइलें नमी नहीं, सड़न से डरती थीं।


जयवर्धन, मैं और प्रोफेसर आशीष गुप्ता उस कमरे में खड़े थे।प्रोफेसर के हाथ कांप रहे थे। वो बार-बार कह रहे थे: “यहाँ कुछ रिकॉर्ड्स… गायब हो चुके हैं। कुछ नामों पर जांच हुई थी, लेकिन फिर सब सील कर दिया गया था… कहा गया — ‘पुरानी बात है, भूल जाओ।’”


जयवर्धन ने धीरे से कहा: “तभी तो मैं आया हूँ।” और उसने बिना अनुमति लिए एक धँसी हुई अलमारी की ओर कदम बढ़ा दिए।


एक मोटा ग्रीन फोल्डर — जिसके किनारों पर दीमकों के हल्के निशान थे, लेकिन उसका शीर्षक अब भी साफ़ पढ़ा जा सकता था: जीके हॉस्टल | बैच 2003–04 | कॉन्फिडेंशियल 


फोल्डर को खोलते ही कुछ सूखे पत्तों की तरह पुराने रजिस्ट्रेशन फॉर्म्स, नोटिस, मेडिकल रिपोर्ट्स और अनुशासनात्मक आदेश बिखर गए। जयवर्धन ने दस्तावेज़ों को माहिर जासूस की तरह पलटना शुरू किया — उसका चेहरा भावहीन था, पर आँखें बहुत कुछ समझ रही थीं।


फिर…एक नाम सामने आया। नाम: शेखर नागर, जीके हॉस्टल, कमरा: 307, दाख़िला: अगस्त 2003, निष्कासन: फरवरी 2004 कारण: अनुशासनहीनता और मानसिक अस्थिरता


फाइल के नीचे एक मेडिकल रिपोर्ट की कॉपी अटैच थी, जिसमें लिखा था कि छात्र "भीतर से अत्यधिक भयग्रस्त" था, और उसे "समाज से कुछ समय के लिए अलग रहने की सलाह" दी गई थी। लेकिन सबसे विचलित करने वाली बात थी — लाल इंक से लिखा हुआ एक नोट जो शायद उस समय अनदेखा कर दिया गया था। "छात्र की माँ का कथन: ‘मेरा बेटा कहता है — दीवारों में से आवाज़ें आती हैं। और वो चाहता है कि दूसरे भी सुनें।’”


कमरा 307… वही कमरा। मैंने एक लंबी साँस ली, कंधे अपने आप सख़्त हो गए। जयवर्धन ने फाइल को बंद किया —बहुत धीरे, जैसे वो किसी की कब्र पर मिट्टी डाल रहा हो।


जयवर्धन ने कहा — “राघव उसी कमरे में था… जहाँ शेखर को निकाल दिया गया था। और अब, उसी कमरे में… वो मारा गया।”


वो कमरे से बाहर निकल आया, धीरे-धीरे चलते हुए जैसे किसी अदृश्य रेखा को जोड़ रहा हो। “क्या ये सिर्फ़ संयोग है?” “या फिर कोई ऐसा चक्र है… जो हर उस व्यक्ति तक पहुँचता है। जो ‘उस’ कमरे में एक रात से ज़्यादा रुकता है?”


शेखर नागर — कमरे से निकाला गया, कहा गया कि उसका दिमाग़ बिगड़ गया था। राघव सिन्हा — कमरे में मरा पाया गया, गला दबा हुआ… और उसके चेहरे पर वो एक जैसी घबराहट। क्या दोनों ने एक ही चीज़ देखी? या क्या राघव ने वही कुछ पूरा किया जिसे शेखर अधूरा छोड़ गया था?

.............


अब अगला टारगेट था — तिलक मिश्र, तीन लोग। एक तस्वीर। एक इतिहास — और एक अनसुनी चीख। शेखर नागर, जो "गायब" कर दिया गया। राघव सिन्हा, जो "मारा गया।" अब बचा था सिर्फ़ — तिलक मिश्र।


तस्वीर में जो तीसरा चेहरा फाड़ा गया था, अब वो रहस्य नहीं रहा। तिलक, जो राघव का रूममेट था, अब एकमात्र ऐसा नाम था जो ज़िंदा भी था… और गायब भी।


 कमरे के बाहर हम हॉस्टल की तीसरी मंज़िल पर कमरा नंबर 309 के सामने खड़े थे — तिलक का कमरा। जिसका दरवाज़ा बंद था। लेकिन ताला लटका नहीं था — बस भीतर से किसी ने महीनों से खोला नहीं। दीवार के कोने में धूल जमा थी, दरवाज़े पर खरोंच नहीं… पर जंग के निशान थे।


छात्रों ने हमें घेर लिया। उनके चेहरों पर डर नहीं — बल्कि ‘परेशानी से बनी चुप्पी’ थी। एक लड़का आगे आया। बोला: “तिलक कहता था कि राघव बदल गया है…” दूसरे ने जोड़ा: “उसका कहना था — ‘शेखर वापस आ गया है।’” “वो कहता था, 'अब कमरे में वो नहीं, कुछ और रहता है...'”


और फिर —एक सुबह वो गायब हो गया। कोई छुट्टी नहीं ली, कोई सामान नहीं ले गया। बस… गया, और फिर लौटकर कभी नहीं आया।


जयवर्धन ने फिर DVR की पुरानी रिकॉर्डिंग चलाई — रात 2:07 वाली फुटेज। जैसे ही लाइट डिम हुई… एक चीज़ पहले ध्यान में नहीं आई थी। कमरा 308 का दरवाज़ा —जो राघव के कमरे के ठीक सामने था — धीरे से हिला। बहुत हल्के से।जैसे किसी ने बाहर से छुआ हो — या फिर अंदर से कोई देख रहा हो…


लेकिन… उसमें गया कोई नहीं। कोई बाहर निकला भी नहीं।कोई हलचल नहीं — सिर्फ़ एक 'कंपन'।


जयवर्धन ने स्क्रीन को बंद किया, और एक ठंडी साँस ली। “शेखर नागर कभी हॉस्टल से गया ही नहीं था…” “उसकी उपस्थिति को बस फाइलों से मिटा दिया गया।” “लेकिन उसका डर… उसकी घुटन… उसकी चीख़ — अब भी यहीं है।” “वो दीवारों में समा गया… और शायद राघव ने कुछ पढ़कर उसे फिर से जगा दिया।”


अब तक सामने आए टुकड़े कुछ यूँ जुड़े: शेखर नागर —मानसिक रूप से अस्थिर घोषित छात्र। जिसने कमरा 307 में रहकर बार-बार कहा — "दीवारों में से आवाज़ें आती हैं..." जिसे हॉस्टल से निकाल दिया गया — लेकिन उसका डर नहीं गया।


राघव सिन्हा — उसी कमरे में आया। किसी पुराने दस्तावेज़ या डायरी को पढ़ा… जिसमें वो सेम सेंटेड आर्किवल इंक पाई गई — जो सिर्फ़ पुरानी सीलबंद फाइलों में होती है।और फिर… उसकी चीख सुनाई दी — और मौत मिली।


तिलक मिश्र — जो समझ गया था कि कुछ गड़बड़ है। राघव का बर्ताव बदल गया था। और जब वो बोला —"शेखर वापस आ गया है", तो उसे पागल समझ लिया गया… और वो खुद ही गायब हो गया।


जयवर्धन ने उस फाइल का आखिरी पन्ना खोला। एक जर्जर-सी चिट्ठी, जो शायद कभी गंभीरता से पढ़ी नहीं गई थी। उस पर हल्की नीली स्याही में लिखा था — “मेरे बेटे को मत निकालो… वो बीमार नहीं है। वो बस दूसरों की सुन नहीं पाता — क्योंकि दीवारें उससे ज़्यादा बोलती हैं।”


जयवर्धन ने चिट्ठी को देखा… फिर दीवारों की ओर देखा — जो अब भी उतनी ही शांत थीं, जैसे उनकी यादें कोई नहीं मिटा सकता। "अब समझ आया," जयवर्धन ने धीरे से कहा — “यह मौत नहीं थी… यह कहानी थी — जिसे कभी पूरा नहीं होने दिया गया।” “और अब…कहानी खुद को पूरा कर रही है — एक-एक किरदार को वापसी के लिए खींचकर ला रही है।”


......................


 “कुछ सच ज़िंदा रहते हैं, कुछ मरकर और ज़्यादा ज़िंदा हो जाते हैं।”

— जयवर्धन त्रिपाठी



 रात 12:04 AM — कमरा 307, हॉस्टल की तीसरी मंज़िल पूरी तरह वीरान थी। हवा ठहरी हुई थी — जैसे रात खुद सुनने आई हो। कमरा 307 की कुंडी जयवर्धन ने खुद लगाई थी।आरव नीचे कॉरिडोर में बैठा था — वॉकी-टॉकी हाथ में, नजरें सीढ़ियों पर।


कमरे में हल्की पीली लाइट जल रही थी — न ज़्यादा तेज, न पूरी मंद — बस इतनी कि साए अपनी शक्लें बदल सकें। टेबल पर वही जली हुई नोटबुक, जैसे अब भी कुछ कहने को ज़िंदा हो। खिड़की आधी खुली थी — पर उससे आने वाली हवा में कोई ‘धड़कन’ सी थी। दीवारें शांत थीं — लेकिन उनकी चुप्पी भारी थी, मानो कोई अंदर से सांस ले रहा हो।



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जयवर्धन एक कोने में बैठ गया, कमरे का निरीक्षण करते हुए।हर कोना, हर चीज़…सिर्फ़ पुराना नहीं था, बल्कि "छिपाया गया" था। फिर उसने वॉकी-टॉकी पर धीरे से कहा: “आरव…यहाँ कुछ है…दिखता नहीं, शायद…सुनाई दे।”


 रात 12:32 AM — कमरे में अचानक एक कोने से 'खड़खड़ाहट' सुनाई दी। ना तेज़, ना डरावनी…बस इतनी हल्की कि अनसुनी भी रह जाए। लेकिन जयवर्धन की इंद्रियाँ जाग चुकी थीं। उसने तुरंत टॉर्च जलाई। रोशनी सीधे उस कोने पर पड़ी — दीवार के नीचे, पेंट के हल्के उखड़े हिस्से में…एक ईंट कुछ हिली हुई सी थी। उसने धीरे से ईंट पर हाथ फेरा। ईंट ढीली थी… लेकिन जैसे उसके पीछे किसी की साँस अटकी हो। एक झटके से ईंट निकाली गई। और…


भीतर से एक धूल से सना हुआ, पीला पड़ा लिफ़ाफ़ा मिला।जिस पर कोई नाम नहीं था — सिर्फ़ पीछे हल्की सी स्याही में लिखा था: “अगर इसे कोई पढ़े — तो मुझे सुने भी।”


लिफ़ाफ़ा अब भी बंद था —किनारों पर सीलिंग वैक्स के सूखे टुकड़े चिपके थे —जैसे किसी ने इसे बहुत ज़रूरी बात छुपाने के लिए सील किया हो। जयवर्धन ने उसे हाथ में लिया —और एक सेकंड के लिए… कमरे में सब कुछ शांत हो गया। जैसे कमरे को अब चैन मिला हो…या…जैसे कमरा अब ध्यान दे रहा हो — कि क्या खुलेगा।


आरव की आवाज़ वॉकी में आई: “सर… ऊपर कोई आहट हुई?” “लग रहा है जैसे कोई सीढ़ियाँ चढ़ रहा है…” जयवर्धन ने जवाब नहीं दिया। उसकी आँखें अब भी उस लिफ़ाफ़े पर थीं। “शेखर नागर…शायद कभी गया ही नहीं था…” वो बुदबुदाया।


...............


“डर कभी अकेला नहीं आता…वो किसी को साथ लाता है —और कई बार, वो ‘कोई’… इंसान ही होता है।”

— जयवर्धन त्रिपाठी


कमरा 307 की दीवार में छिपे धूलभरे लिफाफे से तीन पन्ने निकले। ना तारीखें थीं, ना हस्ताक्षर —लेकिन हर शब्द में किसी टूटे हुए मन की आवाज़ थी।


पहला पन्ना: “मैंने सुना… उसने फिर से मुझसे बात की। लेकिन अब वह मुझसे नहीं, दीवार से बात करता है। राघव भी वैसा ही है… जैसे मैं था। क्या वो मुझे समझेगा?”


जयवर्धन ने इसे पढ़ते ही दीवार को देखा —फटी हुई प्लास्टर की दरारें, जैसे उसमें कोई ‘रेडियो वेव’ छुपी हो, जो सिर्फ़ कुछ खास लोगों से बात करती है। “ये पन्ना शेखर ने तब लिखा होगा जब राघव ने पहली बार दीवारों में रुचि दिखाई थी,” जयवर्धन ने कहा।

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दूसरा पन्ना: “जिस दिन मैंने उस तस्वीर में से खुद को मिटाया, उसी दिन मैं वजूद से बाहर गया —लेकिन कमरे में रह गया।” अब तस्वीर और डर के बीच का रिश्ता साफ़ होने लगा था।शेखर ने खुद को भौतिक दुनिया से मिटा दिया था। लेकिन उसकी चेतना, उसकी "उपस्थिति", कमरा छोड़ने को तैयार नहीं थी। “ये कोई आत्महत्या नहीं थी…” “ये खुद को छुपा लेने की क्रिया थी,” जयवर्धन ने धीरे से कहा।

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तीसरा पन्ना: “दीवारें अब भी बोलती हैं… लेकिन अब वो मुझे नहीं… किसी और को पुकार रही हैं।” कमरे में जैसे तापमान गिर गया हो। जयवर्धन का माथा पसीने से भीग गया —लेकिन खिड़की अब भी आधी खुली थी…जब तक वो अपने आप "खट!" से बंद नहीं हो गई।

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दीवारों में एक हल्की सी गूंज आई — ना हवा थी, ना कोई मशीन, लेकिन फिर भी वो आवाज़… “बजती हुई खामोशी” जैसी थी। जयवर्धन तुरंत खड़ा हुआ। उसने कमरे के कोनों को देखा, और फिर सीधी आँखों से बोला: “कोई चाहता है कि हम मान लें… कि ये भूत है।” “लेकिन कोई है…जो जानता है —डर से बड़ा कोई हथियार नहीं होता।”


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आरव नीचे फ्लोर पर था, वॉकी-टॉकी हाथ में, उसकी साँसें तेज़ चल रही थी। तभी एक हल्की फुसफुसाहट आई —मानो कोई माइक से भी धीमे बोल रहा हो: “…मैं अब भी यहीं हूँ…”


आरव काँप गया। “जयवर्धन! ये… आवाज़ आई! शेखर की थी क्या?” लेकिन ऊपर से जवाब आया — “नहीं आरव…” “किसी की आवाज़… शेखर की नकल कर रही है।” अब खेल में कोई और है…


जयवर्धन ने खिड़की खोली, और कमरे की हवा फिर से बदली। “शेखर शायद मर चुका है…लेकिन उसका डर… कोई इस्तेमाल कर रहा है।” अब ये केवल अलौकिक नहीं था —कोई इंसान, किसी साज़िश के पीछे, इस डर को “परदे” की तरह इस्तेमाल कर रहा था।


और शक की सुई घूमी — उन दो लोगों की ओर जो राघव के सबसे करीब थे: कविता शर्मा — जिसने सबसे पहले चीख सुनी… लेकिन शायद कुछ और भी देखा?

प्रोफेसर आशीष गुप्ता — जिसने फाइलों को छुपाया, और कहा "कुछ रिकॉर्ड गायब हैं"… क्या वो सिर्फ़ अनदेखी थी?


आरव घोष की डायरी से — “कुछ कमरों में रहस्य नहीं होते…वहां डर को जन्म दिया जाता है। और फिर वो डर, अपना किरदार खुद चुनता है।”

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निष्कर्ष — अब तक:

शेखर नागर ने खुद को तस्वीर से हटाया — शारीरिक दुनिया से मिटा दिया। उसकी डायरी के पन्नों में संकेत है कि कमरे में कुछ है जो सुनता है, पुकारता है। राघव उस ही जाल में फँसा — और मारा गया। अब किसी ने डर को हथियार बना लिया है। और उस डर की आड़ में कुछ छिपाया जा रहा है — शायद एक और गुनाह, या कोई पुराना अपराध।


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“कभी-कभी हम जिस भूत से डरते हैं… वो असल में कोई इंसान होता है… जो खुद डर से खेलना जानता है।”

— जयवर्धन त्रिपाठी

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15 जुलाई 2005 – सुबह 7:45 AM जीके हॉस्टल की तीसरी मंज़िल पर सुबह की रोशनी धीरे-धीरे कमरे की दीवारों पर फैल रही थी। कमरा 307 अब शांत था — लेकिन उस ख़ामोशी में भी कुछ ‘बची हुई बातें’ तैर रही थीं।


जयवर्धन खिड़की के पास खड़ा था — हाथ में शेखर की डायरी के टुकड़े और आँखों में वो दृढ़ता —जो किसी सत्य के करीब पहुँच चुकी हो। “अब वक़्त है उन चेहरों से पर्दा उठाने का…जो डर की आड़ में छिपे थे।” वो बुदबुदाया।


कॉमन रूम में जयवर्धन और कविता आमने-सामने बैठे थे।कमरे में सन्नाटा था। केवल वॉल क्लॉक की टिक-टिक सुनाई दे रही थी। “तुमने ही सबसे पहले चीख़ सुनी,” जयवर्धन ने सीधा सवाल दागा। “क्या तुम्हें शेखर के बारे में पहले से जानकारी थी?” कविता का चेहरा सफेद पड़ गया। उसके होठ काँपे, लेकिन फिर उसने सिर झुका लिया। “हाँ… मैं जानती थी…” “राघव को डराया जा रहा था। पर मैं सिर्फ़ देख रही थी… मुझे लगा वो पागल हो गया है।”


 “किसने डराया?” जयवर्धन ने पूछा। कविता चुप रही। फिर बोली: “मुझे नहीं पता… पर वो हर रात उस तस्वीर को घूरता था।” “तीन लोग…लेकिन एक चेहरा फाड़ा गया था — और वो शेखर था।”


 “मैंने तस्वीर से वो चेहरा हटाया… क्योंकि राघव कहता था —'जब तक वो चेहरा रहेगा, कोई चैन से नहीं सोएगा।'” अब तक कविता काँप रही थी — पर जयवर्धन शांत था। उसकी निगाह कविता पर नहीं, बल्कि उसकी बातों में जो नहीं कहा गया, उस पर थी। “तुमने सिर्फ़ ‘देखा’…या… कहीं से निर्देश मिला था?” लेकिन कविता ने कुछ नहीं कहा।


जयवर्धन ने विश्वविद्यालय के आर्काइव से एक और फाइल निकलवाई। लाल बाउंडिंग वाला फोल्डर, जिस पर लिखा था: "GK हॉस्टल — अनुशासनात्मक अभिलेख: 2004 (गोपनीय दस्तावेज़)" फोल्डर में एक पन्ना था — जिस पर शेखर नागर का नाम दर्ज था।


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दस्तावेज़ में लिखा था: “दिनांक: 3 फरवरी 2004” “छात्र शेखर नागर ने प्रोफेसर आशीष गुप्ता को सार्वजनिक रूप से चुनौती दी —” ‘आपका डर असली नहीं, बस दिखावा है… लेकिन मैं आपका सच जानता हूँ।’ “इसके बाद छात्र को मानसिक असंतुलन के कारण निष्कासित किया गया।”


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कॉरिडोर में, प्रोफेसर आशीष गुप्ता की कक्षा के बाहर —जयवर्धन ने उन्हें रोका। “शेखर ने आपको क्या कहा था?” “जो दस्तावेज़ में है…” गुप्ता ने सूखी आवाज़ में कहा। “नहीं… जो दस्तावेज़ से छुपाया गया है, वो क्या था?” गुप्ता की आँखें सिकुड़ीं। “क्या शेखर ने किसी गलत गतिविधि का पर्दाफाश किया था?” “क्या वो किसी रैगिंग, प्रयोग, या मानसिक उत्पीड़न का शिकार था?” गुप्ता चुप रहे।


“शेखर को ‘पागल’ कह देना आसान था…” “क्योंकि वो सवाल पूछता था, और सवाल… आपके जैसे लोगों के लिए खतरा होते हैं।” गुप्ता ने जवाब नहीं दिया। पर उनके पसीने की बूंदें बहुत कुछ कह गईं।

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अब तक की सच्चाई: कविता शर्मा जानती थी कि राघव डर में जी रहा था — पर उसने कभी सच में मदद नहीं की। तस्वीर का चेहरा शेखर का था, जिसे हटाया गया — शायद इसलिए कि वो अब भी ज़िंदा था, किसी रूप में। प्रो. आशीष गुप्ता ने शेखर को सार्वजनिक चुनौती के बाद मेंटल इलनेस का बहाना बनाकर निकाल दिया। पर शायद शेखर कुछ जानता था — कोई ऐसा सच… जो हॉस्टल की दीवारों में अब भी दबा है।

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आरव धीरे से बोला: “तो क्या ये भूत नहीं है, सर?” जयवर्धन मुस्कुराया — एक थकी, लेकिन जानकार मुस्कान। “हो सकता है कुछ अंशों में डर अलौकिक हो… लेकिन ये साज़िश इंसानों ने बुनी है।” “किसी ने डर को ‘परदे’ की तरह इस्तेमाल किया — ताकि सच हमेशा छिपा रहे।”

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“सच की सबसे डरावनी बात ये नहीं होती कि वो क्या है —बल्कि ये कि उसे कितने लोग मिलकर छुपाते हैं।”

— जयवर्धन त्रिपाठी

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 15 जुलाई 2005 – दोपहर 3:15 PM इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इन्वेस्टिगेशन रूम, कमरे की हवा में अब डर की जगह संदेह और साज़िश का वज़न था। जयवर्धन, प्रोफेसर गुप्ता की चुप्पी और कविता की हिचकिचाहट को जोड़कर एक धागा बुन चुका था — पर कहानी तब तक अधूरी थी, जब तक तीसरा चेहरा — तिलक मिश्र — सामने न आता।



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राघव का मेलबॉक्स स्कैन करते वक्त, जयवर्धन को एक ईमेल मिला — भेजने की तारीख़: 12 जुलाई 2005 — यानी राघव की मौत से ठीक 2 दिन पहले।

Subject: मुझे अब समझ में आया

From: tilak.mishra04@gmail.com

To: raghav.sinha@gmail.com

Time: 1:46 AM

“राघव, मैंने शेखर की डायरी पढ़ ली है। वो पागल नहीं था।उसने सच में कुछ ऐसा सुना था… जो अब मैं भी सुन रहा हूँ।इस कमरे में कोई है — या कोई था — जो अब भी है। मैं जा रहा हूँ… माफ़ करना।”


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मेल पढ़ते ही कमरे में सन्नाटा छा गया। आरव ने फुसफुसा कर कहा: “इसका मतलब… तिलक भागा नहीं, बल्कि डर से भागा।” “वो जान गया था… कि डर असली नहीं, लेकिन किसी के लिए जानलेवा ज़रूर है।”


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अब अंतिम निर्णय “शेखर मरा नहीं था — उसे सिस्टम से मिटा दिया गया।” “राघव ने उस दबे हुए सच को छू लिया… और वही उसकी मौत की वजह बना।”


 “जिसने भी राघव को मारा — उसने डर को हथियार बनाकर एक ‘भूतिया कहानी’ की स्क्रिप्ट लिखी, ताकि असली गुनाह कभी उजागर न हो।”


जयवर्धन ने यूनिवर्सिटी फोरेंसिक रिपोर्ट निकाली — कमरा 307 की दीवार के पीछे छिपे पुराने लिफाफे से एक fingerprint match मिला था। “प्रोफेसर गुप्ता — यह आपकी उंगली की छाप है।” “जब आपने लिफाफा छिपाया — आप दस्ताने पहनना भूल गए।” “आपने वो डायरी, वो दस्तावेज़, वो डर — सब एक जगह दबा दिए…” गुप्ता थरथराने लगे।


“आपको कैसे लगा कि राघव कभी उस ईंट तक नहीं पहुँचेगा?” गुप्ता अब चुप नहीं रह सके — वो गिर पड़े, हाथ जोड़ते हुए बोले: “मैं नहीं चाहता था कि 2004 की फाइलें दोबारा खुलें… शेखर मेरे बारे में बहुत कुछ जानता था।” “वो मुझे देखता था जैसे… मेरी आत्मा की खिड़की खोल देगा।” “राघव… वो भी उसी रास्ते पर था। उसे रोकना ज़रूरी था।”


 और शेखर? “शायद वो मर गया… शायद नहीं। लेकिन उसके लिखे शब्द — अब पढ़ लिए गए हैं। अब उसका डर किसी का हथियार नहीं रहा।”


जयवर्धन ने खिड़की खोली — वो तस्वीर अब वहाँ नहीं थी।पर दीवार पर एक धुंधला सा निशान — मानो किसी ने वहाँ से अपने होने का नाम मिटा दिया हो।

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 अंतिम टिप्पणी — आरव घोष की डायरी से: “भूतों से डरना आसान है, लेकिन इंसानों के बनाए डर से बाहर निकलना ही असली युद्ध है।” “इस केस में, शेखर सिर्फ़ एक कहानी था…लेकिन उसका सच, हर शब्द से ज़िंदा हो गया।”


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🗃️ File 3: केस बंद

✅ हत्या का रहस्य उजागर ✅ हत्यारा पकड़ा गया — डर की आड़ में खेलने वाला इंसान ✅ डर की उत्पत्ति — सिर्फ़ मानसि

क बीमारी नहीं, साज़िश थी ✅ राघव को न्याय मिला — भले वो ज़िंदा न रहा


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 ("लेकिन वह कमरा… आज तक सील है।") और कमरा 307…अब भी तीसरी मंज़िल पर खामोश है — पर शायद सुनता है।


(समाप्त)